
लोगों को खुश रखना — जब यह दयालुता नहीं बल्कि एक ट्रॉमा प्रतिक्रिया होती है
लेखक: डॉ. कामाक्षी, काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट
क्या आपने कभी “हाँ” कहा है, जबकि आपका मन “ना” कहना चाहता था?
क्या आपको यह सोचकर घबराहट होती है कि कोई आपसे नाराज़ हो गया है — भले ही गलती आपकी न हो?
या आप हमेशा दूसरों की खुशी के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं,
लेकिन अंत में खुद थककर खाली, अदृश्य या असंतुष्ट महसूस करते हैं?
अगर ऐसा है, तो यह केवल “अच्छे स्वभाव” का मामला नहीं हो सकता।
संभावना है कि आप “पीपल-प्लीज़िंग” यानी लोगों को खुश रखने की आदत का अनुभव कर रहे हैं —
और यह एक गहरी ट्रॉमा प्रतिक्रिया हो सकती है।
पीपल-प्लीज़िंग क्या है?
पीपल-प्लीज़िंग वह व्यवहार है जिसमें व्यक्ति लगातार दूसरों की भावनाओं, ज़रूरतों और आराम को अपनी आवश्यकताओं से ऊपर रखता है —
अक्सर अपनी मानसिक भलाई की कीमत पर।
ऊपर से यह दयालुता या विनम्रता लगता है,
लेकिन इसके पीछे छिपा होता है एक गहरा डर —
डर कि अगर मैं सबको खुश नहीं रखूंगा, तो मुझे अस्वीकार कर दिया जाएगा, डांटा जाएगा या मुझसे प्यार नहीं किया जाएगा।
एक मनोवैज्ञानिक के रूप में, मैं कहती हूँ —
“पीपल-प्लीज़िंग आपकी पहचान नहीं है, यह आपका सीखा हुआ सुरक्षा तंत्र है।”
इसके पीछे की मनोवैज्ञानिक जड़ें
जब कोई व्यक्ति बचपन में बार-बार उपेक्षा, आलोचना या भावनात्मक अस्थिरता का सामना करता है,
तो उसका मस्तिष्क “सुरक्षा” के लिए अनुकूलन करना सीख जाता है।
बचपन में जब प्यार, सराहना या सुरक्षा “शर्तों” पर मिलती है —
जैसे “तुम अच्छे बच्चे बनो तभी प्यार मिलेगा” —
तो बच्चा सीखता है कि अपनी भावनाएँ दबाकर, दूसरों को खुश रखना ही सुरक्षा का रास्ता है।
इसे मनोविज्ञान में Fawn Response (फॉन प्रतिक्रिया) कहा जाता है।
यह ट्रॉमा की चार सामान्य प्रतिक्रियाओं में से एक है:
- Fight (लड़ना) — खतरे से सामना करना
- Flight (भागना) — खतरे से दूर जाना
- Freeze (जम जाना) — सुन्न हो जाना
- Fawn (खुश करना) — खतरे से बचने के लिए दूसरों को खुश करना
यही “फॉन रिस्पॉन्स” आगे चलकर लोगों को खुश रखने की आदत में बदल जाता है।
अवचेतन मन कहता है —
“अगर सब मुझसे खुश रहेंगे, तो मैं सुरक्षित रहूँगा।”

यह आदत कैसे बनती है
अक्सर यह पैटर्न उन घरों में शुरू होता है जहाँ —
- प्यार और स्वीकृति “अच्छे व्यवहार” पर निर्भर होती थी।
- अपनी भावनाएँ दिखाना “बुरा” या “बदतमीज़ी” माना जाता था।
- कोई माता-पिता बहुत गुस्से वाले या भावनात्मक रूप से ठंडे थे।
- बच्चे को घर की शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी दी जाती थी।
ऐसे माहौल में बच्चा सीखता है —
“अगर सब खुश हैं, तो मैं सुरक्षित हूँ।”
धीरे-धीरे यह विश्वास उसकी पहचान का हिस्सा बन जाता है।
लगातार दूसरों को खुश रखने की कीमत
ऊपर से यह गुण अच्छा लगता है,
लेकिन इसके भीतर छिपा होता है गहरा मानसिक और भावनात्मक बोझ।
- मानसिक थकान और चिंता:
हमेशा यह सोचते रहना कि कोई क्या सोच रहा है — मस्तिष्क को थका देता है। - आत्म-पहचान का खो जाना:
इतना दूसरों के अनुसार जीना कि खुद की पसंद-नापसंद भूल जाना। - भावनात्मक थकावट:
हर बार देना लेकिन बदले में कुछ न पाना — भीतर खालीपन और नाराज़गी पैदा करता है। - असंतुलित रिश्ते:
ऐसे लोग अक्सर उन व्यक्तियों को आकर्षित करते हैं जो उनका फायदा उठाते हैं। - दबा हुआ गुस्सा:
“ना” न कह पाने का गुस्सा अंदर सड़ता रहता है और कभी-कभी शरीर में बीमारियों के रूप में उभर आता है।
एक पीपल-प्लीज़र का अंदरूनी संवाद
यह समझना ज़रूरी है कि उनके अंदर की आवाज़ क्या कहती है —
- “अगर मैं ना कहूँ तो वो नाराज़ हो जाएगा।”
- “मुझे परेशानी झेलनी पड़े तो भी कोई बात नहीं।”
- “अगर सब खुश रहेंगे तो मैं भी ठीक रहूँगा।”
ये विचार कमजोरी नहीं हैं —
बल्कि पुराने घावों की आवाज़ हैं।
बचपन में जो बच्चा सुरक्षा पाने के लिए सबको खुश रखता था,
वही आज वयस्क होकर भी वही पैटर्न दोहरा रहा है।
पहचानना ही पहला कदम है
अगर आप यह पैटर्न अपने भीतर पहचान पा रहे हैं,
तो यह हीलिंग की शुरुआत है।
अपने आप से ईमानदारी से पूछिए —
- क्या मैं अपने मन की बात दबा देता/देती हूँ ताकि झगड़ा न हो?
- क्या मैं बिना गलती के भी माफ़ी माँग लेता/लेती हूँ?
- क्या मुझे किसी के गुस्से से डर लगता है?
- क्या “ना” कहने पर मुझे अपराधबोध होता है?
अगर जवाब “हाँ” है, तो याद रखिए —
यह आपकी गलती नहीं है,
यह आपके मस्तिष्क का “सुरक्षा मोड” है।
हीलिंग (उपचार) की दिशा में कदम
हीलिंग का अर्थ दूसरों को नज़रअंदाज़ करना नहीं है —
बल्कि खुद को भी उतना ही महत्व देना है जितना दूसरों को देते हैं।
- जड़ को समझिए:
खुद से पूछिए — “मैं कब से डरता/डरती हूँ कि कोई मुझसे नाराज़ हो जाएगा?”
जब आप कारण समझते हैं, तभी बदलाव संभव होता है। - सीमाएँ (Boundaries) बनाइए:
“ना” कहना बुरा नहीं — यह आत्म-सम्मान की निशानी है।
छोटी-छोटी बातों से शुरुआत करें; जब मन न हो, तो शालीनता से मना करें। - अपने अंदर के बच्चे को सहलाइए (Reparenting):
खुद से कहिए —
“मुझे सबको खुश करने की ज़रूरत नहीं है।”
“अगर कोई मुझसे नाराज़ भी हो जाए, तब भी मैं सुरक्षित हूँ।”
धीरे-धीरे आपका दिमाग़ समझने लगेगा कि अब आप उस असुरक्षित माहौल में नहीं हैं। - खुद से जुड़िए:
थोड़ा वक़्त अकेले बिताइए — journaling, meditation या mindfulness से।
खुद से पूछिए — “मुझे क्या अच्छा लगता है?”
यह सवाल आपको आपकी असली पहचान से फिर जोड़ देगा। - थेरेपी का सहारा लीजिए:
ट्रॉमा-इन्फॉर्म्ड थेरेपी (Trauma-Informed Therapy) या Inner Child Work
आपकी मदद कर सकती है अपने पुराने घावों को पहचानने और भरने में।
एक कोमल याद दिलाना
आपने लोगों को खुश करना इसलिए सीखा,
क्योंकि कभी यह आपकी सुरक्षा का तरीका था।
यह कमजोरी नहीं — आपकी संवेदनशीलता की गहराई है।
अब समय है कि उस देखभाल का थोड़ा हिस्सा अपने लिए भी रखें।
क्योंकि असली शांति सबको खुश करने में नहीं,
बल्कि सच्चे बने रहने में है।
अंतिम विचार
एक मनोवैज्ञानिक के रूप में, मैं रोज़ देखती हूँ —
जैसे ही कोई व्यक्ति समझता है कि “पीपल-प्लीज़िंग” उसकी पहचान नहीं बल्कि उसकी पुरानी रक्षा प्रणाली है,
उसका जीवन बदलने लगता है।
जब आप सीमाएँ बनाना सीखते हैं,
तो आप प्यार खोते नहीं — बल्कि सच्चा प्यार आकर्षित करते हैं।
तो याद रखिए —
आप स्वार्थी नहीं हैं अगर आप “ना” कहते हैं।
आप बुरे नहीं हैं अगर आप अपनी सीमाएँ तय करते हैं।
और आप अकेले नहीं हैं —
आप बस ठीक होना सीख रहे हैं।
यह विद्रोह नहीं है,
यह हीलिंग है।
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Counselling Psychologist | EFT Trainer | Mental Health Blogger | Anxiety Coach
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